भारतीय लोकतंत्र में प्रदूषण


-बी.एल. गौड़
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जब कहीं किसी अधिवेशन में, देश में या प्रदेश में 'लोकतंत्र' पर चर्चा होती है तो कहा जाता है-भारतीय लोकतंत्र का कोई सानी नहीं। इसमें कोई संदेह भी नहीं कि बोलने की जितनी आजादी हमारे देश में है शायद ही संसार के किसी देश में हो। जब ऐसा सोचता हूँ तो देश की आजादी का पूरा कार्यकाल मेरी आँखों के सामने से सिनेमा की रील की भाँति गुजर जाता है। कैसे फिरोज गांधी, नेहरू जी के संसदीय भाषणों में टोका-टाकी करते थे? कभी-कभी तो संसद के बीच चल रही बहस कुछ देर के लिये रोकनी पड़ती थी। इस सबके बावजूद भी एक शालीनता बनी रहती थी।
धीरे-धीरे लोकतंत्र की उमर बढऩे लगी और देश प्रगति पथ पर आगे बढऩे लगा। साथ ही राजनीति का स्तर भी गिरने लगा, उसका गंदा वाइरस लेकतंत्र में प्रवेश करने लगा। नेहरू युग बीता, थोड़ा सा समय देश ने लालबहादुर शास्त्री जी की साफ-सुथरी राजनीति में गुजारा। लेकिन शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु से यह स्पष्ट हो गया था कि अब राजनीति के गंदे वायरस ने भारतीय लोकतंत्र को अपने पंजों में जकड़ लिया है।
इंदिरा जी लोकतंत्र की राजगद्दी पर विराजमान हो चुकीं थीं। उनका शासन काल देश के इतिहास में एक बड़े कांड़ के शब्दों में इसलिये दर्ज होगा क्योंकि उनके शासनकाल की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का जिकर देश और विदेश में सदैव याद किया जायेगा। पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से को काटकर बांग्लादेश के नाम से एक नये देश का जन्म, दुश्मन देश पाकिस्तान के 90000 सैनिकों को बंदी बना लेना और इस वीरता पर देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल जी  का इंदिरा जी को दुर्गा कहना आदि उनके कार्यकाल की विशेष घटनायें रहीं। इन सभी घटनाओं को इंदिरा जी ने 1974-75 में देश को एक ऐसी चादर उढ़ा दी जिसके तार-तार पर लिखा था 'आपातकाल'। इसका दंश मैंने भी भोगा। जॉर्ज फर्नांडिस का साथ देने के कारण, जेल में चालीस दिन बिता कर। उन दिनों तमाम बुद्धि जीवियों की बोलने की आजादी छीन ली गई थी।


समय तो अपनी चाल से चलता ही रहता है। बीच-बीच में कुछ वर्षों के अंतराल को छोड़ दिया जाये तो 2014 में जाकर गांधी परिवार (महात्मा गांधी का नहीं) का शासनकाल समाप्त हुआ और मोदीकाल का उदय हुआ। पर विपक्ष में आकर कांग्रेस का सोचने का स्तर एकदम आसमान से जमीन पर आ गया। 2014 का चुनाव हो या 2019 का अथवा किसी राज्य की विधान सभा का, संभाषण की कला दूषित होती चली गई। देश के मौजूदा प्रधानमंत्री को चोर, दलाल, बेईमान और न जाने किन-किन शब्दों से अलंकृत किया गया। 
लेकिन लगता है कि हमारे लोकतंत्र में हल्की गाली और ऐसे तमाम शब्दों के प्रयोग पर कोई पाबंदी नहीं है।
अब थोड़ी सी बात उस पार्टी की भी कर लें जिसे चरित्रवान पार्टी कहा जाता है, जिसका केंद्र तथा अधिकांश प्रांतों में राज है। इसके लिये केवल एक ही घटना का उल्लेख काफी होगा। हरियाणा में चुनाव हुए। परिपाटी और इतिहास के विपरीत फिर से वही पार्टी जीत कर आ गई जो पहले सत्र में भी गद्दी पर आसीन थी लेकिन कुछ सीटें कम रह गईं। बहुमत के लिये मुख्यमंत्री बने खट्टर साहब ने गिरे से गिरे आदमी का सााथ लेने में भी कोई बुराई नहीं समझी और निमंत्रण भेज दिया हरियाणा के डौन श्रीमान गोपाल कांडा को। लेकिन फिर अपने ही विधायकों  के विरोध के कारण साथ लेने से मना कर दिया। सत्ता में बने रहने के लिये हाथ थाम लिया ज ज पा नाम की पार्टी का और इस तिकड़म से खट्टर साहब फिर से हरियाणा की गद्दी पर विराजमान हो गये और फिर से सांस लेने लगा भारतीय लोकतंत्र। आज गद्दी पर बने रहने के लिये हर पार्टी का नेता साम दाम दंड भेद को अपना कर अपना सब कुछ यहां तक कि संस्कार भी दांव पर लगा देता है। क्योंकि वह जनसेवक बनना चाहता है। जनता चाहे न चाहे लेकिन उसे तो जनता की सेवा करनी ही है।
यदि राजनीति का चरित्र इसी प्रकार गिरता रहा तो भारतीय लोकतंत्र की परिभाषा पर फिर से विचार करना होगा।